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अभ्युदय - भाग 2 (सजिल्द)

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :616
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4543
आईएसबीएन :81-8143-129-8

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रामकथा पर आधृत उपन्यास

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Abhyudaya - Part 2

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘अभ्युदय’ रामकथा पर आधृत हिन्दी का पहला और महत्वपूर्ण उपन्यास है। ‘दीक्षा’, ‘अवसर’, ‘संघर्ष की ओर’ तथा ‘युद्ध’ अनेक सजिल्द, अजिल्द तथा पॉकेटबुक संस्करण प्रकाशित होतक अपनी महत्ता एवं लोकप्रियता प्रमाणित कर चुके हैं। महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में इसका धारावाहित प्रकाशन हुआ है। उड़िया, कन्नड़, मलयालम, नेपाली, मराठी तथा अंग्रेजी से इसके विभिन्न खण्डों के अनुवाद प्रकाशित होकर प्रशंसा पा चुके हैं। इसके विभिन्न प्रसंगो के नाट्य रूपान्तर मंच पर अपनी क्षमता प्रदर्शित कर चुके हैं तथा परम्परागत रामलीला मण्डलियाँ इसकी ओर से आकृष्ट हो रही हैं। यह प्राचीनता तथा नवीनता का अद्भुत संगम है। इसे पढ़कर आप अनुभव करेंगे कि आप पहली बार ऐसी रामकथा पढ़ रहे हैं, जो सामयिक, लौकिक, तर्कसंगत तथा प्रासंगिक है। यह किसी अपरिचित और अद्भुत देश तथा काल की कथा नहीं है। यह इसी लोक और काल की, आपके जीवन से सम्बन्धित समस्याओं पर केन्द्रित एक ऐसी कथा है, जो सर्वकालिक और शाश्वत है और प्रत्येक युग के व्यक्ति का इसके साथ पूर्ण तादाम्य होता है। ‘अभ्युदय’ प्रख्यात कथा पर आधृत अवश्य है ; किन्तु यह सर्वथा मौलिक उपन्यास है, जिसमें न कुछ अलौकिक है, न अतिप्राकृतिक। यह आपके जीवन और समाज का दर्पण है। पिछले पच्चीस वर्षों में इस कृति ने भारतीय साहित्य में अपना जो स्थान बनाया है, हमें पूर्ण विश्वास है कि वह क्रमशः स्फीत होता जायगा, और बहुत शीघ्र ही ‘अभ्युदय’ कालजयी क्लासिक के रूप में अपना वास्तविक महत्व तथा गौरव प्राप्त कर लेगा।

युद्ध-1

प्रथम खण्ड

1
बालि को समाचार मिला और भीतर से कोई धक्के मार-मारकर उन्हें उठाने लगा। पर उठकर चल पड़ना अब उतना सरल नहीं था। अब वे वानरों के राजा थे-सम्राट। अपनी मर्यादा को भूल, उठकर कैसे चल दें। उन्हें चाहिए कि आदेश दें कि दण्डधरों की एक टोली तुरंत नगरद्वार पर भेज दी जाए, और यदि वे भी इस भैंसे को अनुशासित न कर सकें, तो एक गदाधर टोली भी भेज दी जाए, और यदि वे भी इस भैंसे को अनुशासित न कर सकें, तो उसे मार डालें...इसमें ऐसी कौन-सी समस्या है कि राजा स्वयं उठकर जाए, राजा भी बालि जैसा-वानरों का सम्राट।
किंतु शासक बालि के भीतर एक और बालि बैठा था-आखेटक बालि ! वह जैसे सागर की लहरों का समान, शासक बालि के नियंत्रण में आ-आकर फिसल जाता था...कितने दिनों से वह सुन रहा था कि किष्किंधा के आस-पास के वनों में एक वन्य भैंसा मँडराया करता है। वह सामान्य भैंसा नहीं है। वह असाधारण रूप से वृहदाकार तथा बलशाली है। स्वभाव से हिंस्र है और सामने पड़ने वाले किसी भी जीव से भिड़ जाया करता है। उसके कंठ से निकला शब्द विकट भी था और विचित्र भी। क्रोध में जब वह डकारता तो लगता था जैसे दुंदुभि पर आघात हुआ हो। इसलिए लोगों में उसका नाम दुंदुभि ही प्रसिद्ध हो गया था...आज प्रातः से ही, उसके किष्किंधा के प्रवेशद्वार पर आ डटने के समाचार नगर में आ रहे थे। फिर सूचना मिली कि वह द्वार-रक्षकों से भिड़ गया है; और यह भी ज्ञात हुआ कि द्वार पर उपस्थित दण्डधर रक्षक उसके लिए अपर्याप्त सिद्ध हो रहे हैं...तथा नगर में पर्याप्त त्रास फैल गया है।

सैनिक अथवा दण्डधर टुकड़ी नगरद्वार पर भेजकर बालि कैसे संतुष्ट हो सकते थे ? उसका मन उन्हें कोंच-कोंचकर कह रहा था कि नगरद्वार पर खड़ा वह भैंसा दुंदुभि उन्हें ही चुनौती दे-देकर अपनी दुंदुभि बजा रहा है। कैसे आखेटक हैं बालि कि ऐसे में भी वे अपने महल में बैठे-बैठे सैनिक टुकड़ियों को भेज रहे हैं ?
चुनौती की दुंदुभि सुनते वे कैसे शांत बैठे रहें ?
और ऐसे वन्य भैंसे के आखेट की क्रीड़ा वे कैसे छोड़ दें ?
शासक बालि कहीं विलीन हो गए, वहाँ केवल आखेटक बालि रह गए।
उनका रुकना मुश्किल था...उन्होंने अपनी भारी गदा कंधे पर रखी और नगरद्वार की ओर चल पड़े। महल तथा नगर में वह सूचना तब प्रचारित हुए, जब बालि नगरद्वार पर पहुँच चुके थे।

बालि ने अपनी आँखों में दुंदुभि को तोला-वह साधारण भैंसा नहीं था, जिसे मारकर उन्हें अपयश मिलता कि वानरों का शूरवीर सम्राट भैंसों की हत्याएँ करता फिरता है। दुंदुभि बस्तुतः वन्य भैंसा था-आखेटक के लिए चुनौती और कसौटी।
द्वार-रक्षक सैनिक सोचते ही रह गए और बालि अपनी गदा के साथ दुंदुभि के सामने जम गए।
दुंदुभि ने अपनी रक्तिम हिंस्र आँखों से अपने सम्मुख उपस्थित बाधा को देखा और फूत्कार करता हुआ उस पर चढ़ दौड़ा। बालि ने अपनी गदा को घुमाकर दुंदुभि के मस्तक पर आघात किया। दुंदुभि ने फिर से रुककर बालि को देखा। वह सामान्य वन्य भैंसा नहीं था, जो बालि की गदा के आघात से भाग जाता। वह तो जैसे द्वंद्व-युद्ध की तैयारी कर रहा था। आघात को सह, चोट से पीड़ित हो, उसने दौड़ लगाई और आक्रोश में मत्त, प्रतिशोध की भावना से भरा हुआ, वह पूरे वेग के साथ लौटा और उसने बालि पर प्रहार किया।

बालि सुखी हुए। उन्हें युद्ध के लिए योग्य प्रतिद्वंद्वी मिल गया था। उन्होंने घूमकर, दुंदुभि के अगले पुट्ठे पर पूरी शक्ति से गदा दे मारी। किंतु दुंदुभि इस बार भी नहीं भागा। दोनों जैसे ताक-ताककर लड़ रहे थे। लंबे समय तक दोनों में घात-प्रतिघात चलते रहे...अंत में दुंदुभि की पशु-बुद्धि भी समझ गई कि बालि के बल, युद्ध-कौशल और गदा के भयंकर आघातों के सामने टिक पाना उसके लिए संभव नहीं है...दुंदुभि के पैर उखड़ गए और वह भाग खड़ा हुआ।
बालि को जीत की प्रसन्नता तो हुई, किंतु दुंदुभि को भागते देख वे संतुष्ट नहीं हुए, जैसे उनके हाथ से उनका खिलौना छिना जा रहा हो। क्रीड़ा का रस उन्हें सूखता-सा लगा। उसे इस प्रकार भागने नहीं दिया जा सकता था...बालि दुंदुभि के पीछे भागे। घायल दुंदुभि का वेग आश्चर्यजनक था। बालि न उसको रोक पा रहे थे, न उसके साथ भागने में सफलता पा रहे थे। वे दोनों आगे-पीछे भागते रहे। बालि यह देखने के लिए भी नहीं रुके कि कोई उनके साथ आ भी रहा है या नहीं। यह दौड़ मतंग वन तक चली गई...दुंदुभि वन में जा घुसा, किंतु बालि ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। दुंदुभि अपनी पीड़ा में पागल हो रहा था और बालि अपने आक्रोश में। दोनों ने ही बिना कुछ देखे-भाले वन में लंबी दौड़ लगाई। जिधर सींग समाये, दुंदुभि उधर ही भागा। और बालि जैसे किसी चुंबकीय शक्ति से बँधे हुए, उसके पीछे-पीछे भागते चले गए।
सामने ऋष्यमूक की चढ़ाई आ गई। दुंदुभि रुका। वह कदाचित् अपने रक्तस्राव के अतिरेक तथा इस लंबी दौड़ से थककर, जीवन से निराश हो चुका था।...सहसा वह पलटकर खड़ा हो गया। उसकी आँखों से चिंगारियाँ फूट रही थीं और नथुनों से निरन्तर फूत्कार। उसने क्षण-भर रुककर जैसे आँखों में बालि को तोला और फिर झपटा..वह बड़ा ही निर्णायक आघात था। बालि यदि उसे रोकने का प्रयत्न करते, तो अपनी असाधारण शारीरिक शक्ति के बावजूद निश्चित रूपर से मारे जाते। किंतु बालि ने उसे रोकने का प्रयत्न नहीं किया। वे एक ओर हट गए और जैसे ही दुंदुभि अपने वेग में आगे बढ़ा, बालि ने अपने शरीर के संपूर्ण बल से उसके पिछले पुट्ठे पर गदा का प्रहार किया। दुंदुभि की हड्डियाँ कड़कड़ा उठीं। वह ऐसे बैठा कि उठ नहीं सका...बालि ने जब देखा कि दुंदुभि अब उठ नहीं सकता तो उन्होंने दूसरा आघात उसके मस्तक पर किया।

दुंदुभि की डकराहट का शब्द वन के सहस्त्रों वृक्षों से जा टकराया और उसकी प्रतिध्नियाँ वन की प्रत्येक दिशा में फैल गई। दुंदुभि ने अपना सिर पृथ्वी पर डाल दिया...
बालि को जब पूर्ण रूप से विश्वास हो गया कि दुंदुभि वस्तुतः मर चुका है और अब वह कभी नहीं उठेगा, तब जैसे उनका युद्ध-ज्वर उतरा और उन्होंने यह भी पहचाना कि वे किस जोखिम में पड़े लड़ रहे थे और मृत्यु उनके कितनी निकट खड़ी थी। यदि वे ठीक समय पर हट नहीं गए होते तो दुंदुभि की वह अंतिम झपट निश्चत रुप से उनके लिए यमपाश थी...वे जैसे मृत्यु की पकड़ से किसी प्रकार फिसलकर निकल आए थे...
बालि को लगा, उनके मस्तिष्क में से जितना स्थान आवेश ने खाली किया है, वह न केवल मृत्यु के भय से भरता जा रहा है, वरन् मृत्यु का भय जैसे उनके साहस और पौरुष को ही धकेलता जा रहा है...उनके माथे पर स्वेद-बिंदु उभर आए थे। उनके होंठ सूख रहे थे और भीतर-ही-भीतर जैसे वे बहुत थक गए थे...
सहसा उन्होंने अपने बहुत निकट कहीं मतंगों की चिंघाट सुनी। एक नहीं अनेक मतंग एक साथ चिंघाड़ रहे थे और उनके भागने की धमक जैसे बालि के मस्तक पर बज रही थी...उन्होंने दृष्टि उठाकर देखा, ऋष्यमूक की ढाल पर अनेक मतंग भागते हुए उनकी दिशा में बढ़ रहे थे। उनकी दृष्टि अपने अनुचरों पर भी पड़ी, जो उनके पीछे-पीछे किसी प्रकार यहाँ तक आ गए थे-वे मतंगों की चिंघाड़ के पहले शब्द के साथ ही वहाँ से भाग खड़े हुए थे।

उन्होंने गदा हाथ में ली। आँखों से उसको तोला...किंतु उनका थका हुआ मन साफ-साफ समझ रहा था कि वे अपने पिछले द्वंद्व-युद्ध से चूर शरीर की शक्ति से मतंगों के पूरे झुण्ड को रोक नहीं पाएँगे...उनके सामने भी एक ही मार्ग था-पलायन।
बालि भागे। उनका अंहकार उन्हें धिक्कार रहा था और उनका विवेक उन्हें भगाए लिये जा रहा था। वे अनुभव कर रहे थे कि दुंदुभि के लिए लगाई गई दौड़, उसके साथ हुए युद्ध और अब वापसी की इस दौड़ से उनका शरीर निर्जीव हो रहा था-मन थका हुआ और अहंकार आहत होकर उनके संपूर्ण अस्तित्व को छील रहा था...नगरद्वार तक पहुँचते-पहुँचते बालि सर्वथा बेसुध हो चुके थे। नगरद्वार के रक्षकों ने शिविका का प्रबंध कर उन्हें महल में पहुँचाया। महल में हलचल मच गई। तुरंत वैद्य को बुलाया गया। किंतु बालि ने वैद्य से अधिक महत्व अपने शगुन-विचारक को दिया। वैद्य को किसी प्रकार टालकर उन्होंने शगुन –विचारक की ओर देखा...
‘‘प्रभु !’’ शगुन-विचारक ने बहुत गंभीर स्वर में कहा, ‘‘भैंसा यम का वाहन है। उससे युद्ध उचित नहीं था। युद्ध के लिए जाने से पूर्व, आपने लग्न-विचार भी नहीं करवाया। समय अच्छा नहीं था।...और प्रभु...!’’ शगुन-विचारक रुक गया।
‘‘कहो !’’ बालि ने थके-से स्वर में आदेश दिया।
‘‘मतंग वन की दिशा, युद्ध-अभियान के लिए सर्वथा अशुभ है। युद्ध के लिए उस दिशा में कभी न जाएँ। उस दिशा में विजय नहीं, पराजय है...और..’’
‘‘और ?’’
‘‘मृत्यु की भी संभावना है।’’ शगुन-विचारक बहुत धीमे स्वर में बोला। बालि चुप रहे।

‘‘राजन् ! कल प्रातः उपासना के लिए सागर-तट पर अवश्य जाएँ और आज की इस अशुभ घटना में मृत्यु टालने के लिए देवता के प्रति आभार प्रकट करें...।’’
बालि स्थिर दृष्टि से उसे देखते रहे, बोले कुछ नहीं।
शगुन-विचारक चला गया, किंतु बालि के मन में उसके शब्द निरंतर उथल-पुथल मचाते रहे-‘उस दिशा में कभी न जाएँ...कभी न जाएँ...’
उनकी आँखों में क्रुद्ध दुंदुभि का अंतिम प्रहार जीवंत अनुभव के रूप में घूम गया...और फिर दौड़ते और चिंघाड़ते हुए मतंगों का झुण्ड...अपने अहंकार के आदेश पर यदि बालि कहीं घड़ी-भर को भी रुक गए होते....?
बालि को लगा, वे बहुत थक गए हैं और अब सोना चाहते हैं।
बालि के मन पर ऐसा विषाद छाया कि वे सहज ही नहीं हो पा रहे थे। प्रातः वे समुद्र-तट पर गए तो समुद्रोपासना में मन नहीं लगा। लौटकर राज-परिषद में आए तो न किसी की बात सुनने की इच्छा हुई, न कुछ कहने की। थोड़ी देर तक चुपचाप बैठे अपने मंत्रियों-अमात्यों, सामंतों, यूथपतियों तथा सेनापतियों की मुद्राएँ देखते रहे। जाने वे क्या कह रहे थे और क्या कर रहे थे। वे उनकी किसी भी क्रिया से तादात्म्य नहीं कर पा रहे थे...
अन्य लोगों का ध्यान भी उस ओर गया।

‘‘क्या बात है, सम्राट स्वस्थ नहीं हैं ?’’ सबसे पहले सुग्रीव ने पूछा।
‘‘मन कुछ स्वस्थ नहीं है।’’ बालि मुँह-ही-मुँह में बुदबुदाए।
‘‘सारी किष्किंधा सम्राट के कल के वीर-कृत्य पर उल्लासित है। एक-एक नागरिक अपने सम्राट पर गर्व कर रहा है, और सम्राट हैं कि इस प्रकार अनमने-से बैठे हैं।’’ प्रौढ़ तार ने हँसते हुए कहा।
‘‘मुझे लगता है कि कल की भाग-दौड़ से थकावट हो आई है।’’ सुग्रीव पुनः बोले।
बालि के मन में खीझ उठी। यह सुग्रीव अपने शैशव से ही ऐसी बातें करता रहा है। वह मुझे भी अपने ही समान कोमल समझता है। एक वन्य भैंसे के आखेट से थकावट हो गए। मन में आया, सुग्रीव की ग्रीवा पकड़कर कहें, ‘‘मैं सुग्रीव नहीं, बालि हूँ। कल की भाग-दौड़ के बाद भी आज इतनी क्षमता है मुझमें कि फिर से मतंग वन तक दौड़ लगा आऊँ।’
पर कुछ कहते नहीं बना। मतंग बन के नाम से ही, मन जैसे और भी भारी हो गया।

‘‘मैं आज विश्राम करूँगा।’’ सहसा बालि बोले और उठ खड़े हुए, ‘‘शेष कार्य कल के लिए स्थगित कर दिए जाएँ।’’
तारा को बालि का असमय लौट आने का पता चला, तो दौड़ी आई। बालि को दिन के समय इस प्रकार बिस्तर पर लेटे देखना ही बड़ा आश्चर्यजनक था और उनके चेहरे की उदासी तो अभूतपूर्व थी।
‘‘क्या बात है, प्रियतम ?’’
बालि चुपचाप, एकटक तारा को देखते रहे। इस तारा में जाने उन्हें पहले क्या इतना अच्छा लगता था। आज तो उसे देखकर मन में कहीं कोई स्फूर्ति नहीं जागती। वही प्रतिदिन का देखा हुआ साधारण चेहरा। क्या देखे कोई उसको ?
‘‘कुछ नहीं ! बस, मन ठीक नहीं है।’’ वह भावशून्य स्वर में बोले।
तारा चिंतित-सी खड़ी उन्हें देखती रही, फिर जैसे कुछ न समझकर अपने आप बोली, ‘‘किसी को भेजकर वैद्य को बुलवाऊँ ? अंगद को भी संदेश भेजूँ ?’’
‘‘वैद्य को कष्ट देने की आवश्यकता नहीं।’’ बालि कुछ रूखे स्वर में बोले, ‘‘और अंगद इस समय कहाँ गया है ?’’
‘‘सुग्रीव ने ही कहीं भेजा है।’’ तारा ने उत्तर दिया, ‘‘आजकल बेटे को चाचा की देखा-देखी समाज-सुधार का दौरा पड़ा है।’’
‘‘क्या कर रहा है ?’’
‘‘लोगों को समझाया जा रहा है कि मदिरापान न करें, उससे स्वास्थ्य बिगड़ता है और धन का अपव्यय भी होता है।’’

‘‘ऊँह !’’ बालि का मुँह जैसे कड़वा गया, ‘‘जो पीता है अपने धन को व्यय कर पीता है और अपना स्वास्थ्य बिगाड़ता है; पर दूसरों के निजी मामलों में टाँग न अड़ाई, तो सुग्रीव ही क्या !’’
तारा ने परिचारिकाओं को जाने का संकेत किया और आकर बालि की शैय्या पर, उनके निकट बैठ गई। थोड़ी देर उनके केशों में अँगुलियाँ फिराती रही और फिर पूछा, ‘‘क्या मन बहुत खराब है ?’’
बालि को तारा के हाथ का स्पर्श अच्छा लगा था। मन में हल्की-सी उष्मा जागी। आँखें खोलीं। क्षण-भर ही देखा होगा कि आँखों की भंगिमा फिर बदल गई। पहले जैसे भावहीन स्वर में बोले, ‘‘थोड़ी देर विश्राम करूँगा। तुम जाओ।’’
बालि का मन स्वस्थ नहीं हुआ। कुछ भी ऐसा दिखाई नहीं पड़ा रहा था, जो उनके मन में रंचमात्र भी उत्साह जगा सके। प्रत्येक वस्तु से वितृष्णा, प्रत्येक बात से ऊब, प्रत्येक चेहरे से खीझ...उदास मन और स्फूर्तिहीन शरीर...
कल के ही समान अनमने बालि राजसभागार में आए और अनासक्त-से बैठे रहे। राज-परिषद का कार्य चलता रहा। बालि बैठे थे, क्योंकि बैठना था...
अमात्य तथा मंत्री अपने-अपने विभाग-संबंधी आज्ञाएँ ले चुके, तो अपराधियों के न्याय का कार्य आरंभ हुआ...
पहला अपराधी प्रस्तुत किया गया।

‘‘सम्राट ! इस व्यक्ति को युवराज सुग्रीव तथा राजकुमार अंगद ने बंदी किया है।’’
बालि ने दृष्टि उठाकर देखा-ऐसा कौन-सा अपराधी है, जिसे बंदी करने के लिए सुग्रीव और अंगद को जाना पड़ा। वह व्यक्ति आकृति से विदेशी और विजातीय लगता था। निश्चित रूप से वह वानर नहीं था।
‘‘क्या नाम है ?’’
‘‘मायावी।’’
‘‘जाति ?’’
‘‘राक्षस।’’
‘‘कहाँ के निवासी हो ?’’
‘‘लंका।’’
‘‘अपराध ?’’
‘‘थके हुए मन को विश्राम देना।’’
बालि रुक गए। यह विदेशी क्या कह रहा है ? उनके भीतर कुछ-कुछ रुचि जाग रही थी, ‘‘यह तो कोई अपराध नहीं है, विदेशी ?’’
‘‘मेरी भी यही विनती है, सम्राट !’’ मायावी बोला, ‘‘कितु युवराज नहीं चाहते कि मैं किसी थके मन को विश्राम दूँ। वे इसे अपराध मानते हैं।’’

बालि ने अपराधी को लाने वाले सैनिक की ओर देखा, ‘‘क्या अपराध है इसका ?’’
‘‘सम्राट, इस मदिरा बनाकर बेचने, वैश्यालय चलाने तथा अनेक कन्याओं के अपहरण और उनके क्रय-विक्रय का आरोप है।’’
‘‘तुम लोग जाओ।’’
सैनिक मायावी को छोड़कर चले गए।
इस बार बालि बोले, तो उनका स्वर कुछ धीमा था, ‘‘मायावी ! यदि तुम मेरे थके मन को विश्राम दे पाओगे, तो समझूँगा कि तुम वैद्य का काम कर रहे हो, अन्यथा तुम अपराधी हो। तुम जानते ही होगे, मैं अपराधी को कठोर दण्ड देता हूँ।’’
‘‘सम्राट एक बार सेवा का अवसर दें !’’ मायावी मुसकराया, ‘‘यदि सम्राट के मन को विश्राम मिले, सम्राट स्वस्थ हों, तो सेवक को किष्किंधा में अपना व्यापार फैलाने की खुली छूट दें।’’
बालि ने उसे भरपूर दृष्टि से देखा और कहा, ‘‘स्वीकार है।’’
दूसरे दिन राजसभा का वातावरण बदला हुआ था।

बालि आज अन्यमनस्क नहीं थे। उनके चेहरे पर हल्की-हल्की मुसकान थी, जैसे मन-ही-मन किसी मधुर रस का पान कर रहे हों। वे प्रत्येक बात रुचिपूर्वक सुन रहे थे। प्रत्येक बात के उत्तर में प्रतिक्रिया व्यस्त कर रहे थे...कभी-कभी तो वे पूरी तरह परिहास की मुद्रा में आ जाते थे।
उसके विपरीत आज सुग्रीव का मन प्रसन्न नहीं लग रहा था। अंगद भी जैसे रुठे हुए-से अपने स्थान पर बैठे थे।
दैनिक कार्यक्रम की कुछ औपचारिकताएँ पूरी हो चुकीं तो सुग्रीव ने निवेदन किया, ‘‘मैं सम्राट के एक निर्णय को सम्राट के पुनरावलोकन के लिए प्रस्तुत करना चाहता हूँ।’’
बालि की मुसकान विलीन हो गई। वे सामधान होकर बैठ गए, ‘‘बोलो !’’
‘‘सम्राट ! आपको स्मरण होगा, कल मायावी नाम का एक अपराधी न्याय के लिए आपके सम्मुख प्रस्तुत किया गया था।’’
बालि ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।

‘‘उसे मैंने तथा राजकुमार अंगद ने स्वयं जाकर बंदी किया था।’’ सुग्रीव बोले, ‘‘उस पर अनेक गंभीर आरोप थे।’’
‘‘मुझे उसका कोई अपराध समझ में नहीं आया।’’ बालि ने भ्रू-संकोच के साथ कहा, ‘‘वह व्यक्ति व्यापारी है। यदि वह किसी चीज़ का निर्माण करता है और उसे बेचता है, लोग अपनी इच्छा से उसे खरीदते हैं और इस सारे व्यापार से कर के रूप में राज्य को पर्याप्त आय होती है, तो यह अपराध कैसे है, युवराज ?’’ बालि का स्वर और भी ऊँचा हो गया, ‘‘क्या यह नहीं माना जा सकता कि युवराज राज्य की आय की वृद्धि से प्रसन्न नहीं हैं ! वे नहीं चाहते कि वानरों का यह राज संपन्न हो और जनता सुखी हो ! मेरी समझ में यह नहीं आया कि इस निर्धन समाज और राज्य की संपन्नता के मार्गो को युवराज क्यों बंद कर देना चाहते हैं। मैं समझता हूँ कि युवराज केवल स्वयं राज्य-विरोधी गतिविधियों में बहुत सक्रिय हैं, वरन् राजकुमार अंगद को भी अपने प्रभाव से दिग्भ्रमित कर रहे हैं।’’
सुग्रीव को जैसे काठ मार गया...कहाँ वे सोच रहे थे कि वे मायावी को अपराधी घोषित करवा, उसे दण्डित करवाएँगे और कहाँ वे स्वयं अपराधी ठहराए जा रहे हैं। अपराधी भी कैसा ? अपनी जाति, समाज तथा राज्य से द्रोह का। इन अपराधों को तनिक भी गंभीरता से लिया जाए, तो सुग्रीव को तुंरत मृत्यु-दण्ड दे दिया जाएगा...
उनका मस्तिष्क कुछ इस जोर से झनझनाया कि कहने को कोई बात ही नहीं सूझी। मस्तिष्क में तो जैसे खून चढ़ गया था, तर्क कैसे सूझता। उन्होंने दृष्टि घुमाकर अंगद को देखा-अंगद का चेहरा भी क्रोध से तमतमाया हुआ लगता था, जैसे अभी फट पड़ेगा।

सुग्रीव ने स्वयं को संयत किया। जानते थे, क्रोध से कोई बात नहीं बनेगी। इस समय क्रोध दिखाने का अर्थ अपने पक्ष को और भी दुर्बल बनाना होगा।
‘‘यदि सम्राट की अनुमति हो, तो मैं भी अपना पक्ष प्रस्तुत करूँ।’’ सुग्रीव ने जैसे स्वयं अपना गला घोंटकर अपनी आवाज़ धीमी की।
‘‘बोलो।’’ बालि का स्वर अत्यंत औपचारिक था। स्पष्ट था कि वे सुग्रीव का पक्ष सुनने के लिए बहुत उत्सुक नहीं थे, किंतु यदि सुग्रीव कहना ही चाहता है तो कह ले।
‘‘वानर जाति अत्यंत निर्धन है।’’ सुग्रीव ने कहना आरंभ किया, ‘‘हम प्रयत्न कर रहे हैं कि हम अपने परिश्रम से अपने साधनों का विकास करें, ताकि हमारी स्थिति कुछ अच्छी हो सके। ऐसे में यदि यहाँ कुछ ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी जाए, जिससे परिश्रम का मूल्य कम हो जाए और विलास का बाहुल्य हो जाए, तो हमारी जाति किसी भी प्रकार आगे नहीं बढ़ पाएगी।’’
‘‘युवराज !’’ बालि का स्वर खीझ से ओत-प्रोत था, ‘‘बात मायावी के अपराध की थी, जाति की निर्धनता की नहीं।’’
‘‘वही कह रहा हूँ।’’ सुग्रीव को अपने कानों की लोएँ तमतमाती-सी लगीं।
‘‘तो सीधे-सीधे अपनी बात कहो।’’ बालि बोले, ‘‘तुम्हारी इन वायवीय बातों में मेरी कोई रुचि नहीं है।’’
इस जड़ मस्तिष्क को कैसे समझाया जा सकता है, सुग्रीव सोच रहे थे-किंतु समझाना तो था ही।

‘‘सम्राट !’’ सुग्रीव ने पुनः कहना आरंभ किया, ‘‘मधुपान का प्रचलन स्थानीय रूप से हमारी जाति में भी है; किंतु यह विशेष अवसरों पर स्वयं तैयार कर, उत्सव मनाने की परिपाटी तक सीमित है। यदि लंका से मँगाकर अथवा लंका की पद्धति पर तैयार करवा, सुगंधित मदिरा की धारा अबाध गति से हाटों में बहेगी तो समाज के समर्थ सदस्यों को उसकी चाट लग जाएगी। वे उसे पाने के लिए अधिक धन बटोरना चाहेंगे। अधिक धन के लिए वे अपनी अधीनस्थ प्रजा पर अत्याचार करेंगे, उसका शोषण करेंगे। कम परिश्रम से अधिक धन कमाना चाहेंगे...।’’ सुग्रीव क्षण-भर रुककर पुनः बोला, ‘‘विलास मदिरा तक ही नहीं थम जाता। आप जानते हैं कि मायावी मदिरा के साथ वेश्या-व्यापार भी करवाता है। ये विलासी लोग इस जाति की कन्याओं को वेश्या बना देने के लिए अपने पास धन संचित करेंगे और दूसरों की आर्थिक स्थिति इतनी हीन कर देंगे कि एक मुट्ठी अन्न के लिए कुलांगनाओं को अपना शरीर बेचना पड़े।...क्या आप चाहेंगे कि सच्चरित्र श्रमिकों की यह जाति, विलासी लंपटों तथा गणिकाओं की जाति में बदल जाए...!’’ सुग्रीव के लिए अपना आवेश रोकना कठिन हो रहा था, ‘‘और जहाँ तक राज्य की आय की बात है-मैं मानता हूँ कि इस व्यवसाय से भी राज्य की आय बढ़ती है। किंतु यदि आप आज यह राजाज्ञा प्रचारित कर दें कि दस्यु-वृत्ति भी वैध व्यवसाय है, पर अपहृत धन का एक चौथाई राज्य को कर के रुप में देना होगा, तो आप देखेंगे कि आपके राज्य की आय अल्पकाल में ही सौ-गुनी हो जाएगी।किंतु ऐसी आय का हम क्या करेंगे ? राज्य को धन की आवश्यकता होती है प्रजा के कल्याण के लिए। प्रजा के अकल्याण से, उसके कल्याण के लिए धन एकत्रित करने का तर्क कितना आत्म-विरोधी है। धन की शक्ति के साथ, समाज में शोषण की मात्रा भी बढ़ेगी। यदि धनी और विलासी यूथपतियों तथा सामंतों के द्वारा प्रजा का शोषण इतना बढ़ जाए कि दिन-भर के श्रम से थका-हरा श्रमिक अपने अल्प पारिश्रमिक से जब अपने परिवार का भोजन नहीं जुटा पाएगा, तो वह अपने पारिश्रमिक से मदिरा के दो चषक पीकर ही अपनी चिंताओं को भूल जाना चाहेगा। उस मदिरा से प्राप्त कर धन नहीं, प्रजा का रक्त है। क्या सम्राट अपने राज्य के लिए ऐसा धन चाहते हैं ?’’
सुग्रीव रुके तो आवेश से हाँफ रहे थे।

एक क्षण के लिए लगा कि बालि भी विस्फोटक मुद्रा धारण कर रहे हैं, किंतु दूसरे ही क्षण, जैसे सब कुछ पी गए। आरोपित मुसकान के साथ बोले, ‘‘युवराज की आशंकाएँ काल्पनिक तथा वायवीय हैं। इनसे मायावी का अपराध सिद्ध नहीं होता !’’
बालि सिंहासन से उठ खड़े हुए।
सुग्रीव की चिंता का कोई अंत नहीं था।
इस जाति का क्या होगा और इस राज्य का ? जब राजा आँखों देखे तथ्यों को अनदेखा करने पर उतारु हो जाए, तो राज्य को रसातल में जाने से कौन रोक सकता है। एक तो बालि स्वयं अंहकारी है; और अब उन्हें एक-से-बढ़कर-एक संगी-साथी मिलते जा रहे हैं। हनुमान ने सूचना दी थी कि मायावी ने अपने वचन के अनुसार बालि के थके मन को विश्राम दिया था। बालि के अपने मधुपान की ही मात्रा कम नहीं थी, अब मायावी ने उसे जो सुंगधित मदिरा पिलाई थी, वह बालि के लिए अभूतपूर्व थी। वैसी मदिरा बालि ने पहले कभी नहीं चखी थी...इतना ही नहीं, मायावी ने मदमस्त बालि के अंक के लिए एक अनुपम सुंदरी-अलका प्रस्तुत कर दी थी। बालि की आँखें चौंधिया गईं। ऐसी सुंदरी की तो उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। वह यक्ष-कन्या बालि को वानर जातीय स्त्रियों से बहुत भिन्न लगी थी-उसका रंग-रूप, उसके वस्त्र, उसके हाव-भाव, उसकी भंगिमाएँ।
और बालि ने स्वीकार किया कि मायावी से बढ़कर उसका कोई उपकारक नहीं है। वह मायावी को अपना परम मित्र मानता है। मायावी किष्किंधा में जो चाहे कर सकता है। बालि उसे कभी नहीं रोकेगा।
सुग्रीव की सारी कल्पनाएँ दुष्कल्पनाओं में बदलती जा रही थीं...बालि के आस-पास, एक-एक कर, मायावी जैसे लोग ही एकत्र होते जा रहे थे। बालि को समझाना कठिन था कि वे उनके मित्र नहीं, शत्रु हैं...रावण कब से इस प्रयत्न में है कि वानरों को मादक पदार्थ उपलब्ध करा सके. उनके लिए विलास के साधन जुटा सके। रावण के रथों के चक्रों के आगे-आगे पहले मादक द्रव्य चलते हैं, उसके पश्चात् दूत, फिर गणिकाएँ, अपहरण, परस्पर कलह और अंत में रावण की सेनाएँ...मायावी के माध्यम से बालि, रावण को भी अपना मित्र मानने लगेंगे और फिर रावण से विभिन्न प्रकार की विलास सामग्रियों की अपेक्षा करेंगे।

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